एक बार एक साधु महात्मा नदी के किनारे से गुजर रहे थे, उन्होंने एक कीडे क़ो नदी में गिरते देखा, तो पास जाकर उसे बचाने की कोषिष करने लगे उसे झट से उठा कर जैसे ही पानी से बाहर निकाला तो उस कीडे ने साधू महाराज को बहुत जोर से डंक मार दिया। साधू के हाथ से वो कीड़ा गिरकर फिर छटपटाते हुए नदी में डूबने लगा। साधु महाराज ने 2-3 बार फिर से उसे बचाने की कोषिष की लेकिन जैसे ही वो अपना हाथ उस कीड़े को बचाने के लिए आग बढ़ाते वो कीड़ा उन्हें हर बार डंक मार देता। पास से गुजरते एक राहगीर ने साधू महाराज से पूछा कि महाराज वो कीड़ा बार-बार आपको डंक मार रहा है, आप फिर भी उसे बचाने की व्यर्थ कोषिष क्यूं कर रहे हो? साधू महाराज ने बड़ी ही नम्रतापूर्वक कहा, उस कीड़े का स्वभाव है डंक मारना और मेरा स्वभाव है, जीवन बचाना। अगर वो कीड़ा होते हुए अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकता तो मैं अपना स्वभाव कैसे छोड़ दूं? साधू महाराज ने आगे समझाते हुए कहा कि हमारा जीवन एक नाटक की तरह है, यदि हम इसके कथानक को ढंग से समझ लें तो सदैव प्रसन्न रह सकते हैं।
मुझे यह कहानी इसलिये याद आ गई, क्योंकि कुछ दिन पहले कुछ सरकारी डाक्टर और अफसर हमारे इलाके में आकर सभी कालोनी निवासियों को साफ-सफाई रखने और बीमारियों से बचाव के तरीके समझा रहे थे। मैंने बहुत ध्यान से जब सब तरफ देखा तो पाया कि इस बैठक में अधिकतर 40-50 साल की उम्र के अच्छे पढ़े-लिखे और जिम्मेदार नागरिक षामिल थे। सरकारी अफसरों ने काफी समय लगा कर हमें साफ-सफाई और अच्छे रहन-सहन के बारे में हर प्रकार की जानकारी बहुत ही बरीकी से दी। हमने भी उनकी बातें बहुत गौर से सुनीं और पाया कि इनमें से अधिकतर बातें हम सब लोग जानते है। फर्क सिर्फ इतना है, कि हम लोग व्यावहारिक जीवन में उन पर अमल नहीं करते क्योंकि हमने इन्हें कभी भी अपने स्वभाव में शामिल करने की कोषिष नहीं की। हम अपना घर साफ करके कूड़ा-कचरा गली के कोने में फेंक देते है, और उम्मीद करते हैं कि सरकारी कर्मचारी आकर इसे अपने आप साफ करेंगे, फिर तब तक चाहे कोई महामारी ही क्यूं ना फैल जाये? हम तो अपना पल्ला झाड़ कर सारा इल्जाम सरकार पर थोप देते हैं।
हम अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजकर अच्छी षिक्षा का इन्तजाम तो कर देते हैं, पर उन्हें जीवन के मूलभूत सिध्दान्त सिखाना भूल जाते हैं। हर परिवार सिर्फ यही चाहता है कि जीवन में उनके बच्चे अच्छी षिक्षा ग्रहण करके अधिक से अधिक धन कमाने की मषीन बन सकें। अच्छे नागरिक के गुण देने का कर्तव्य तो अधिकतर परिवार भूल जाते है। जाने अनजाने, हम अपने बच्चों को समाज के प्रति उनकी जिम्मेदारी को जागरूक करने की बजाए उनको अपने ही स्वार्थ तक सीमित रहने के लिये प्रेरित करने की भूल कर बैठते हैं। बाकी की सब बातों को भूलकर पैसा कमाना ही हमारी प्राथमिकता बन गई है। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि इस देष का अब कुछ नहीं हो सकता पर गौर से देखा जाए तो अभी बिगड़ा ही क्या है? अगर हम आज से भी अपने बच्चों को घर और स्कूल में पढ़ाई के साथ साथ साफ-सथुरे जीवन का ढंग सिखाना षुरू कर दें, तो अच्छे नागरिक के सारे संस्कार हमारे बच्चों के स्वभाव में रचबस जाऐंगे। फिर उसके बाद उनको अच्छे रहन-सहन, साफ-सफाई और कानून की इज्जत करने के लिये हमारी तरह बुढ़ापे की उम्र में भाषण देने की जरूरत नहीं पडेग़ी।
यदि आज से भी जनसाधारण अपनी नैतिक जिम्मेदारी को समझना षुरू कर दें, तो हमें अपनी अधिकतर समस्याओं के समाधान के लिये सरकारी मषीनरी की तरफ नहीं ताकना पड़ेगा। अब अगर हम एक बार मन में ठानकर यह शुरूआत करें तो आने वाली पीढ़ियों के साथ-साथ हमारे समाज का भविष्य साफ-सुथरा, सुरक्षित और उज्जवल हो जाएगा। कुछ लोग जल्दबाजी के स्वभाव के चलते झूठी प्रंशसा पाने के लिए बिना सोचे समझे अपने स्वार्थ्र हेतू कुछ भी करने को तैयार हो जाते है। जबकि किसी काम को करने के बाद पछताने से बेहतर है कि काम करने से पहले उस पर सोच-विचार लिया जाए। ऐसे लोगो को यह भी नही भूलना चहिये कि इस तरह के स्वभाव के लोगो का साथ सज्जन पुरष कभी नही निभा पाते। सदैव अपने स्वभाव को सरल बनाओ तो आपका समय व्यर्थ नहीं जाएगा। जब आप अपने जीवन का महत्व समझकर चलते हो तो उस समय दूसरे भी आपको महत्व देंगे।
साधू-संतो की बात को पल्ले बांधते हुए जौली अंकल तो यही कह सकते है कि हम सभी को मिलकर आज अपने आप से यह वादा करना होगा कि हम अपने परिवार के साथ अपने खुद के स्वभाव को देष और जनहित में बदलेगे क्योंकि जनहित की सेवा करने वाले सेवा करते हुए भी सुखी देखे जाते हैं और स्वार्थी स्वभाव वाले तो अक्सर दुखी ही नजर आते है।
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