साधु-संत, ज्ञानी लोग हमेशा से ही हमें समझाते रहे हैं, कि इन्सान दुनिया में अकेला ही आता है और उसे अकेले ही यह जग छोड़ना पड़ता है। वो बात अलग है कि जन्म के तुरन्त बाद ही बहुत से दुनियावी रिष्ते बन जाते हैं। जोकि हमारे जीवनकाल में साथ निभाने का दम भरते है। जब तक जीवन में सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहे तो आपके मिलने-जुलने वाले भी बहुत अच्छे से अपनापन जताते रहते है। भगवान न करे आपके ऊपर किसी दिन कोई कष्ट की घड़ी आ जाये, तो उस समय आपके सबसे नजदीकी रिश्तेदार और विश्वसनीय दोस्त भी पल भर में गिरगिट की तरह रंग बदल कर पल भर में गायब हो जाते हैं।
अगर थोड़ा गहराई से सोचें, तो हम महसूस करेंगे कि आजकल क्या कोई सच में किसी का साथ निभा पाता है? या यूं कहें कि हम किसी का किस हद तक साथ निभाते है? कहने को रिष्तों के नाम पर हमारे पास मां-बाप, भाई-बहन, चाचा-ताऊ के अलावा दोस्तों यारों की एक लम्बी सी सूची रहती है। इतने रिष्ते होते हुए भी आज का आदमी बिल्कुल अकेला और तन्हा होता जा रहा है। कुछ अरसा पहले तक हर खुषी, गम एवं दुख की घड़ी में पूरा कुंबा एकजुट होकर हर तरह की परेशानी को असानी से झेल जाते थे। लेकिन आजकल राह कितनी भी कठिन क्यूं न हो, हमें अकेले ही उस पर चलना पड़ता है।
कल तक जो लोग जन्म-जन्म का साथ निभाने की कसमें खाते थे, उन लोगों को आपकी गली से गुजरना भी भारी लगता है। कभी किसी मोड़ पर अचानक मुलाकात हो भी जाये तो ऐसा बर्ताव करेंगे जैसे कि वो आपको पहचनाते ही नहीं। दुख और परेषानी के पलों में आपकी मदद करने की बजाए दुनिया भर के बहानों की लिस्ट आपके सामने रख देंगे। कुछ बड़े शहरों में रहने वाले को तो हर महफिल में शेखी बघारने में तो न जाने कितना आनन्द आता है। बड़े-बड़े अफसरों और राजनेताओं के बारे में ऐसे किस्से सुनाएगे जैसे कि वो सारा दिन इनके घर में ही रहते हों। परन्तु कभी गलती से आप इनको एक छोटा सा भी कोई काम करवाने को कह दें, तो पल भर में इनके चेहरे से हवाईयॉ उड़ने लगती है। कुछ चतुर और चालाक लोग यदि आपकी मदद करते भी है तो उस मजबूरी का भरपूर फायदा उठाने से भी नही चूकते।
आज के बदलते माहौल में बात चाहे किसी सरकारी दफतर से कुछ काम करवाने की या दुख तकलीफ में घर के किसी बुजुर्ग का अस्पताल में इलाज करवाने की, आपको सब कुछ अपने बलबूते पर ही करना पड़ता है। कुछ बरसों पहले तक लोग थोड़ी बहुत जान-पहचान की वजह से, गली-मुहल्ले और बिरादरी वालों की आंख की षर्म के कारण से एक दूसरे की बहुत इज्जत करते थे। लेकिन धीरे-धीरे हर कोई अपने आप में मस्त होता जा रहा है। आज का इन्सान हर रिष्ते को पैसे की तराजू में तोलने लग गया है। किसी गैर की मदद तो दूर, अपने मां-बाप की देख-भाल भी बच्चों को भारी लगने लगी है। अधिकतर परिवारों के बच्चों ने मां-बाप को भी दूसरी वस्तुओं के माफ़िक टुकड़ों में बांट दिया है। ऐसा लगता है, कि हम सब के खून का जैसे रंग ही बदलता जा रहा है।
कभी-कभी यह सोच कर हैरानी होती है, जिस देश में भगवान कृष्ण और सुदामा जैसे मित्र, जहां श्रवण कुमार जैसे बेटे पैदा हुए थे, क्या यह वही देष है? आखिर हमारे देष की ऐसी हालत क्यूं और कैसे हो गई? किसी और की और उगंली उठाने की बजाए अगर हम अपने गिरेबान में झांकने की कोषिष करें तो अपने बडे-बूढ़ों की नसीहयत याद आयेगी कि अगर बबूल बोओगे तो आम की उम्मीद रखना बेवकूफी होती है। आज अगर समाज में हर तरफ यह खुदगर्जी का माहौल बनता जा रहा है, तो कहीं न कहीं हम खुद ही इसके जिम्मेदार हैं? अगर हम दूसरों से हर सुख-दुख में साथ निभाने की उम्मीद रखते हैं, तो हमें खुद भी इस ओर पहल करनी पड़ेगी। आप एक बार किसी की मुष्किल में उसका साथ देकर तो देखो, साधारण आदमी तो मरते दम तक इस प्रकार की नेकी को नहीं भूलता। इसके एवज़ में कोई आपको कोई कुछ दे या न दे लेकिन भगवान नेकी की राह मे चलने वालों के साथ हमेशा इन्साफ करता आया है। एक बात तो हम सब भी अच्छी तरह से जानते हैं कि बीज बोने से पहले तो कुदरत भी फल नहीं देती। सेवा से पहले मेवा कभी नहीं मिलता।
अभी भी समय है कि जौली अंकल की बात मानते हुए अगर हम सब मिलकर अपने इस खुदगर्जी स्वभाव को बदलने की कोषिष शुरू कर दें तो आने वाले समय में एक नया और बहुत ही सुन्दर समाज का रूप हमारे सामने आयेगा। वरना आने वाली पीढ़ियों के पास धन-दौलत और सब सुख सुविधाएं होते हुए भी उन्हें अपना जीवन बिल्कुल अकेले ही गुजारना पड़ सकता है। उस समय हम सभी को यही कहना पड़ेगा 'राही चल अकेला'।
4 टिप्पणियां:
जौली अंकल!! आपने बहुत सही लिखा है और जब आपने इस लेख को लिख था ठीक उसी वक्त मैं भी तीन माह के भयानक कष्टों से गुजरा था और वास्तव में किसी ने भी साथ नहीं दिया !!
Thanks a lot for sharing your views dear Vidhan Chandra ji.
Jolly Uncle
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