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गुरुवार, 14 जनवरी 2010

बदलते संबंध

मां सुनने में एक छोटा सा अक्षर है पर इसमें षायद समुद्र से भी ज्यादा गहराई है। दुनिया में जब बच्चा जन्म लेता है तो सबसे करीब अपनी मां को ही पाता है। मां भी हर कठिनाई को खुषी-खुषी झेल कर बच्चे को पालती है। मां और बेटे के रिष्ते से नजदीक शायद और कोई रिश्ता होता भी नहीं। मां बेटे को एक एक दिन बड़ा होते देख खुषी से फूली नहीं समाती। हर मां का अपने बच्चों से जुड़ा एक सपना होता है, उसके बड़े होने का सपना, उस की षादी का सपना, अच्छा इन्सान बनाने का और उसके बाद उसके सुखमय परिवार का सपना।
बच्चा चाहे फिर बेटा हो या बेटी। मां अपनी सारी खुशियों का गला घोंट कर बच्चों के लिये सुख-साधन मुहैया करवाती है, और समाज में बच्चों को इज्जत की जिंदगी जीने के काबिल बनाती है। लेकिन जब मां-बाप को बच्चों की जरूरत महसूस होती है, तो बच्चे इतने खुदगर्ज हो जाते है, कि पैसे कमाने की दौड़ में अपने मां-बाप को बेसहारा छोड़ देते हैं। पर मां तो आखिर मां ही होती है। वो तो हंसते-हंसते सब कुछ बर्दाष्त कर लेती है। हर मां का वात्सल्य अपने बच्चे से भरपूर होता है। लेकिन आज सामाजिक मानसिकता के चलते बेटे का पालण-पोषण और उससे जुड़े मां के सपने ज्यादा अहमियत रखते हैं।
बेटे की षादी के बाद मां का नया रूप सामने आता है, वो है उसका सास का रूप, जिसमें बेटे को मां और पत्नी के बीच सामंजस्य बना कर चलना होता है। उस पर हक जताने वाले भी अधिक हो जाते है। हर मां, बेटे की षादी से पहले सोचती है कि बहू के आ जाने से उसके जीवन में आराम ही आराम होगा। बहू उसकी खूब सेवा करेगी, घर के कामकाज से छुट्टी लेकर अपना सारा समय अपनी मर्जी के मुताबिक बिता सकेगी। लेकिन बदलते हालात ने बहू को बेटे की तरह घर से बाहर जाकर पैसा कमाने को मजबूर कर दिया है। इन सबको देखकर मां के सपने चूर-चूर होने लगते हैं।
बहू का रोज सुबह सज-संवर कर दफतर जाना और शाम को उसका थका-मांदा सा चेहरा देखकर मां का परेशान होना स्वाभाविक ही है। एक ओर तो मां ने बहू से सेवा करवाने के सपने संजोए हुए थे, और अब सबकुछ उससे उल्टा हो रहा है। इन बदले हुए हालात ने क्या मां के रूप को सचमुच बदल दिया है? क्या जीवन की इस दौड़ ने मां और बच्चो के दिलो में फर्क पैदा कर दिया है? कल तक जो मां बच्चों के लिए खुशी-खुशी सब कुछ करने को तैयार रहती थी, आज वो दिल की उंमगें, दिल के अरमान टूटते हुए दिखाई देते है। मां तो बच्चों को पाल-पोस का बड़ा करती है, उसको जीवन में कामयाब बनाती है, और वही बेटा बड़ा होकर मां की जिम्मेदारी नहीं उठा पाता। उस मां का बुढ़ापा उसे एक बोझ सा लगने लगता है। अब यहां प्रष्न यह उठता है कि इन सब गंभीर बातों की जड़ किस को माना जाए? आत्मसम्मान को या बदलते वक्त के रंग को।
परिवार में छोटी-छोटी बातों को लेकर एक-दूसरे को नीचा दिखाना, अपने आप को अधिक काबिल समझना ही षायद सब झगड़ाें की जड़ है। हमारे समाज में मां को किसी देवी या देवता से कम सम्मान नहीं दिया गया। अगर मां की इस छवि को बरकरार रखना है तो मां को भी अपने जीवन में अपने आपको थोड़ा सा ऊपर उठाने की जरूरत है। मां को केवल अपना निजी स्वार्थ न देखकर थोड़े और त्याग की भावना को उजागर करना पड़ेगा। घर में बच्चों की हल्की फुल्की नोंक-झोंक को आगे बढ़ाने की बजाए प्यार से सुलझाने में ही मां का बड़प्पन है।
मां अगर खुशी से बेटे की शादी करके बहू को बेटी बना कर घर लाती है, तो बहू को सिर्फ उसकेर् कत्तव्य समझाने के साथ-साथ उसके अधिकारों का हक भी देना नहीं भूलना चाहिए। जौली अंकल का ऐसा विश्वास है कि यह छोटा सा तालमेल किसी भी घर को स्वर्ग बना सकता है।       

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