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शनिवार, 16 जनवरी 2010

हम नही सुधरेंगें

चंद दिन पहले अर्न्तराष्ट्रीय खेलों के इतिहास के पन्ने पलटते समय एक बहुत ही रोचक तथ्य देखने को मिला। भारत द्वारा जीते गए मैंडलों के बारे में जब मैने विस्तार से जाननें की कोशिश की तो पाया कि हमारे खिलाड़ीयों ने अभी तक हुए सभी अर्न्तराष्ट्रीय खेलों के मुकाबलों में सबसे अधिक मैंडल कब्व्ी में ही जीते है। अब अपनी ज्ञियासा को मिटाने के लिए मैने इसके कारणों को खोजने का प्रयत्न किया। काफी माथा पच्ची के बात यह बात साफ हो पाई कि कब्व्ी में सबसे अधिक मैंडल जीतने का मुख्य कारण यह है कि हर भारतीय एक दूसरे की टांग खीचने में बहुत माहिर है। अब वो चाहे हमारा दोस्त, पड़ोसी या नेता ही क्यों न हो। हम खुद कुछ काम करें या न करें लेकिन दूसरों की टांग खीचनें को कोई भी मौका अपने हाथ से नही जानें देते।
आजकल हर समाचार पत्र और टी.वी. चैनल पर हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बहुमूल्य स्मृति चिंन्ह - बापू का गोल चश्मा, घड़ी, चप्पल, प्लेट और कटोरा की नीलामी के चर्चे जोरों पर है। सरकार के भीतर भी इन निशानीयों को बचाने पर बवाल मचा हुआ है। हर समय बापू का राग अलापने वाले देश के नेता ऐसे समय में न जानें कौन सी गहरी नींद में सो जाते है, और तब तक नही उठते जब तक विदेशी देश की बेशकीमती धरोहर को नीलाम नही कर देते।
जब पानी सिर से निकल जाता है, तो उस समय कुंभकर्णी नींद से उठ कर सरकार कुछ न कुछ ड्र्रामा दिखा कर जनता को गुमराह करने की कोशिश करती है। हमारी संस्कृति मंत्री ने तो यहां तक ब्यान दे डाला कि हाईकोर्ट के स्टे आर्डर के मुताबिक सरकार सीधें बोली में शमिल नही हो सकती थी, इसीलिए उसने माल्या की सेवाए लेने का फैसला किया है, और माल्या साहब ने उन्हें भारत सरकार के कहने पर खरीद भी लिया है।
सरकार की किरकरी तो उस समय हुई जब देश के सुप्रसिद्व उद्योगपति विजय माल्या ने इस दावे को सिरे से खारिज कर दिया। समाज सेवा के कार्यो में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने माल्या ने साफ तौर से यह कह दिया कि यह मेरा निजी फैसला था और यह मेरे लिए गर्व की बात है कि मैं बापू की अनमोल निशानीयों को भारत वापिस लाने में कामयाब हो सका  हूँ। इससे पहले वो टीपू सुल्तान की तलवार भी ऐसी ही एक नीलामी में खरीद कर लाऐ थे।
सरकार की बेरूखी के कारण ही एक साधारण जनमानस गांधी जी के विचारों से दूर होता जा रहा है। हर कोई मानता है कि बापू की यह सभी चीजें गलत तरीके से देश से बाहर ले जाई गई है। जबकि इनकी जगह देश के सबसे बड़े सरकारी सग्रंहलय में ही हो सकती है। दुख की बात तो यह है कि हर पार्टी की सरकार इस धरोहर को बचाने में नाकाम रही है।
अब कुछ लोग टांग खीचने की आदत से मजबूर हो कर मीडियॉ में इस प्रकार की बातें उछाल रहें हैं कि शराब व्यवसायी विजय माल्या का तो गांधी जी के शराब विरोधी विचारों का कोई मेल नही बनता। माल्या जी, बापू का चश्मा तो करोड़ों में खरीद लिया लेकिन बापू जैसी दृष्टि और विचार कहां से लाओगे? वो तो पैसो से नही मिलते। कुछ लोगो के विचार में माल्या के इन चीजों को हासिल करने वाले प्रतीको की पवित्रता ही नष्ट हो गई है।
सुबह शाम बापू के नाम की रट लगाने वाले ढ़ोगी तो यहां तक कह रहे हैं कि देश में से बापू के अनमोल रत्नों को बचाने के लिए क्या हमारें पास केवल शराब उद्योगपति ही बचा था? क्या सरकार खुद या किसी अन्य देशभक्त को इस काम के लिए तैयार नही कर सकती थी। ऐसी बाते करने वाले यह क्यों भूल जाते है कि जो काम देश की 125 करोड़ अबादी और सरकार मिल कर नही कर पाए वो विजय माल्या ने अकेले अपने दम पर कर दिखाया। ऐसे लोगो की निगाह में विजय माल्या जैसे लोगो का महात्मा गांधी जैसे महापुरष के सिद्वांतो से कुछ लेना देना नही है। जबकि इतिहास साक्षी है कि गांधी जी ने कभी किसी व्यक्ति को उसके व्यवसाय या पेशे के आधार पर तिरस्कृत नही किया।
समाचार पत्रों में छपी खबरों के अनुसार विजय माल्या ने यहां तक कहा है कि बापू की इन चीजो से प्रेरणा लेते हुए यदि एक भारतीय भी गांधी जी के बताए हुए रास्ते पर चलने में कामयाब हो जाता है तो मैं यह समझूंगा कि करोड़ो डालर की चुकाई गई कीमत मेरे लिए कुछ अधिक नही है। मैं एक भारतीय  हूँ और मैं बापू जी का यह सारा सामान भारत सरकार को तोहफे में दे दूंगा। कहने वाले कुछ भी कहते रहे, लेकिन हर सच्चा देशवासी विजय माल्या के इस एहसान को आने वाले समय में एक लंबे अरसे तक याद रखेगा।
विजय माल्या के इस साहसिक कदम पर सभी देशवासीयों के साथ जौली अंकल उन्हें बधाई देते हुए इतना ही कह सकते है कि हर अच्छे काम की शुरआत में विरोध तो झेलना ही पड़ता है। आप नेकी की राह पर चलते रहें। आपको कोई कितना भी बुरा कहे सहन करते रहना क्योंकि आखिर परमात्मा अंधा तो नही, वो तो सब कुछ जानता है। जहां तक हम भारतवासीयों की बात करें तो यह पक्का है कि कोई कुछ भी करे ' हम नही सुधरेगें '  

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