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शनिवार, 16 जनवरी 2010

कल्पना

कल्पना की दुनिया हर इन्सान को रोजमर्रा के तनाव भरे माहौल से हटाकर कुछ देर के लिये ही सही एक परीलोक में ले जाती है। जहां छोटे बच्चों से बड़े-बूढ़ों तक को बचपन में सुनी परियों की कहानियां एक हकीकत सी लगने लगती हैं। मां-बाप सदा इसी कल्पना में खोये रहते है कि कब उनके बच्चे बडे होकर जीवन में उच्च पद को प्राप्त कर पायेंगे। छोटे बच्चों को परियों की कहानियां लुभाती है, वही युवावर्ग आधुनिक मोबाइल फोन, नई-नई मोटर साईकल और हवा से बातें करती हुई रंग बिरंगी कारों के दीवाने होते हैं।
हर मां हमेशा अपने बेटे के लिये एक चांद सी बहू की कल्पना में ही खोई रहती है। हालांकि चांद में तो अनेकों दाग है, और वास्तविक जिन्दगी में तो लड़की के चेहरे पर एक छोटा सा चोट का निशान भी हजारों अड़चने पैदा कर देता है। पर शायद लोग चांद जैसी बहू की कल्पना इसलिये करते है कि चांद सिर्फ रात को ही निकलता है। बहू भी रात को ही घर आए और दिन निकलते ही गायब हो जाए। इससे न तो सास-बहू के झगड़े का डर, ना पैसों के लेन-देन का झंझट और न ही फरमाईषों की कोई दिक्कत।
कल्पना का जिक्र आते ही हरियाणा के एक छोटे से शहर से निकली नासा की टीम के साथ कल्पना चावला की याद ताजा हो जाती है, जिसने आसमान की बुलंदियों को छूकर भारत देष का नाम गौरवान्वित कर दिया। कल्पना चावला जैसे कितने ही भारतीय विदषों में रहकर वहां कि कई बड़ी कम्पनियों और सरकारी पदों की षोभा बढ़ा रहे हैं। वो लोग ना सिर्फ अपने लिये रोजी रोटी कमा रहे है, बल्कि विदेषों में अपनी अक्ल का लोहा मनवाते हुए उन देशों की अर्थव्यवस्था को एक नया रंग रूप देने में जुटे हुए हैं। आए दिन भारत मूल के लोगों की सफलता की कहानियां हम सब को अकसर पढ़ने को मिलती है।
गौर करने वाली बात तो यह है कि चन्द भारतीय विदेशों में जाकर न जाने किस जादू की छड़ी का इस्तेमाल करके कामयाबी और तरक्की की ऊंचाइयों को छू लेते हैं जिससे उनके नाम के साथ हमारे देष के नाम को भी चार चांद लग जाते हैं। वहीं 100 करोड़ से भी ज्यादा लोगों का जनसमूह इकट्ठा होकर अपने देष की समस्याओं को आज देष की आजादी के 60 साल बाद भी नहीं सुलझा सका। आप देश के किसी भी भाग की बात ले लो, हर गांव, और शहर की कठिनाइयों भरी और कभी न खत्म होने वाले सवालों की एक लम्बी सूची मिल जाएगी। अगर हम छोटी-छोटी समस्याआें को छोड़ भी दें, तो भी हमारी सारी सरकारें देश की जनता को मूलभूत सुविधायें देने में आज भी असमर्थ हैं। क्या हमारी सरकारें और पूरा देश मिलकर भी कभी इन समस्याओं को खत्म कर पायेंगे?
जनता तो हर पांच साल बाद एक सरकार से दुखी होकर दूसरी, और फिर दूसरी से तीसरी सरकार को सत्ताा पर बैठा देती है। पर मुसीबतें हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेती। हां सरकार में बैठे मंत्रीगण और उनके चहेतों का जरूर भला हो जाता है, वो दुबारा चुनाव जीतें या न जीतें एक बार गद्दी मिलने से ही आने वाली कई पुष्तों के लिये तिजोरियों में धनदौलत के अंबार लग जाते हैं। चुनाव खत्म होते ही जनमानस के हित में काम करना तो दूर इन लोगों को अपने वादे भी याद नहीं रहते। वो इन सब बातों को याद रखें भी तो क्यूं? वो अच्छी तरह से जानते हैं कि एक बार गद्दी पर बैठने के बाद जनता उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। जनता के पास अभी तक ऐसा कोई हाथियार नहीं है, जिससे किसी भी मंत्री के ऊपर अंगुली उठाई जा सके।
हर बुध्दिजीवी हमेशा से एक सभ्य समाज की कल्पना करता आया है। हमारे राजनेता हमें हर रोज कोई न कोई सुन्दर सा स्वपन दिखा कर बेवकूफ बनाने में लगे रहते हैं। हमारे देश के कुछ लोग बरसों से राम मदिंर बनवाने का राग अलाप रहे हैं, लेकिन यही लोग राम मंदिर बनाने की बजाए देश में राम-राज्य स्थापित करने की कल्पना करें, तो पूरी दुनिया में एक नई मिसाल कायम हो सकती है। एक आम आदमी तो यही सोचता है कि यह काम बातों में तो अच्छा लगता है लेकिन व्यावहारिक जिंदगी में इस पर अमल नहीं किया जा सकता। एक बार इतिहास के पन्नों की मिट्टी को झाड़ने की कोशिश करो तो आप को कई उदाहरण मिल जाऐंगे कि जंगल कितना भी बड़ा क्यूं न हो, उसे जलाने के लिये ढेरों आग की नहीं, केवल एक चिंगारी की ही जरूरत होती है।
हमारे देष में बहुत से सन्तों और महात्मा लोगों का समाज में बहुत प्रभाव है, उनके एक इषारे पर हमारे षहर का एक बहुत बड़ा हिस्सा कुछ भी करने को तैयार रहता है। अगर हमारे धर्मगुरू इस तरह का बीड़ा उठाने का मन बना ले, तो आने वाले चन्द वर्षों में राम राज्य की छवि साफ दिखने लगेगी। एक आम आदमी जो राजनेताओं से हर प्रकार से निराष हो चुका है, वो भी इस दिषा में अपने आपको मिटाकर धन्य समझेगा।
जहां एक ओर छोटा सा व्यापारी या फैक्ट्री चलाने वाला अपने व्यापार से एक-दो साल में अच्छा मुनाफा कमाने लगता है, वहीं हमारे देष के तकरीबन सारे सरकारी विभाग बरसों से घाटे में ही चल रहे हैं। इसका मुख्य कारण है सरकारी विभागों के बढ़ते खर्चे, अफसरषाही, पैसे का दुरूपयोग, और सबसे बड़ी बात कि वो अपने कामकाज के लिये किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है।
अगर देश के ढांचें को ठीक से नया रंग-रूप देना है, तो पूरे सरकारी तंत्र को, मंत्री से संत्री तक को जनता के प्रति जवाबदेह बनाना होगा। जनता की मांग पर भ्रष्टाचार और कामचोर कर्मचारियों को हटाने का प्रावधान बनाना होगा। समय की मांग है कि देष की बागडोर अब सिर्फ कामयाब और काबिल लोगों के हाथ में देने की जरूरत है। तभी देश की जनता का विदेशी लोगों की तरह मूलभूत सुविधाओं को प्राप्त करने की कल्पना हकीकत बन पायेगी। जौली अंकल अपनी सरकार से क्या यह उम्मीद करें, कि हमारे जीवनकाल में यह कल्पना पूरी होगी, नहीं तो आगे आने वाली पीढ़ियों को कल्पना का कौन सा रूप दिखा पायेंगे। 

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